प्रेसबिओपिया होने पर आंखों की फोकस बदलने की क्षमता हो जाती है खत्म
हमारी आंखों की खास बात ये है कि हम जितनी दूर की चीजें देखते या पढ़ते हैं, उसके हिसाब से इसका फोकस बदल जाता है। इसका मतलब है कि आंखों का लेंस इलास्टिक होता है। प्रेसबिओपिया होने पर आंखों की फोकस बदलने की क्षमता खत्म हो जाती है। इसके कारण पास की नजर कमजोर हो जाती है और पढ़ने-लिखने में समस्या होने लगती है।
सिनेमा में किसी टीचर या दफ्तर के अधेड़ बाबू को फिल्माने के लिए दशकों से एक ही सीन का प्रयोग किया जा रहा है। टीचर चश्मा लगाए किसी नोटबुक या रजिस्टर में कुछ लिखने में व्यस्त है। उसी समय एक बच्चा आकर उन्हें किसी काम के लिए टोकता है। टीचर की नजरें चश्मे के ऊपर से झांककर बच्चे की ओर देखती हैं।
कभी सोचा है कि टीचर ने बच्चे की ओर चश्मे के ऊपर से झांककर क्यों देखा? ऐसा एक आई कंडीशन प्रेसबिओपिया के कारण होता है। इसमें पास की नजर कमजोर हो जाती है। इसके करेक्शन के लिए ही टीचर ने चश्मा पहन रखा है। उनका ये चश्मा किताब या नोटबुक को देखने के लिए तो जरूरी है, लेकिन दूर की चीजें देखने के लिए उस चश्मे को हटाना पड़ता है। प्रेसबिओपिया एक उम्र संबंधी समस्या है, जो आमतौर पर किसी को 40 साल के बाद होती है। यह समस्या तब आती है, जब हमारी आंखों के लेंस की इलास्टिसिटी कम हो जाती है। इसमें सुधार के लिए चश्मा, कॉन्टैक्ट लेंस और सर्जरी जैसे विकल्प पहले से उपलब्ध हैं। अब बीते कुछ समय से भारत में इसके इलाज के विकल्प के तौर पर आई ड्रॉप प्रेस्वू को लेकर भी चर्चा चल रही है। नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में पब्लिश एक स्टडी के मुताबिक, दुनिया भर में 180 करोड़ लोग प्रेसबिओपिया से प्रभावित हैं। भारत में भी यह आंकड़ा काफी बड़ा है।
बढ़ रहा प्रेसबिओपिया आई कंडीशन के करेक्शन का बाजार
डेटा ब्रिज मार्केट रिसर्च ने साल 2021 में प्रेसबिओपिया से जुड़े आंकड़े जारी किए। इसमें बताया गया कि दुनिया भर में लोग प्रेसबिओपिया से प्रभावित आंखों की जांच, करेक्शन, लेंस और दवाओं में 944.1 करोड़ यूएस डॉलर खर्च करते हैं। इसमें यह भी अनुमान लगाया गया है कि यह खर्च अगले सात सालों में 4.90% की कंपाउंड ग्रोथ रेट से बढ़ने वाला है। इसका मतलब ये है कि जिस तेजी से प्रेसबिओपिया के मामले बढ़ रहे हैं, साल 2029 तक पूरी दुनिया में लोग इसके लिए 1384 करोड़ यूएस डॉलर खर्च कर रहे होंगे।