आयुष्मान खुराना की वाइफ अब फेमस राइटर और डायरेक्टर बन चुकी हैं। अब उनकी अपनी पहचान है। अब वो खुद के नाम से जानी जाती हैं। सालों पहले उनकी पहचान जाने-माने एक्टर आयुष्मान खुराना की पत्नी के रूप में थी, मगर प्रोफेसर, लेखक, निर्देशक बनकर और ब्रेस्ट कैंसर की जंग जीतकर उन्होंने खुद को न केवल एक फाइटर साबित किया बल्कि अपनी अलग पहचान भी बनाई। कई किताबों के लेखन और शॉर्ट फिल्म्स के निर्देशन के बाद अब वे अपनी नई फीचर फिल्म ‘शर्मा जी की बेटी’ के साथ सामने हैं।
ताहिरा ने कहा, ‘एक मर्द जब काम के लिए घर से बाहर जाता है, तो उसे मर्द होने के नाते तुरंत इज्जत मिलती है, जबकि एक औरत को खुद को ज्यादा साबित करना पड़ता है कि उसे अपन काम आता है। अपने सेट पर, क्रू में आपको सिद्ध करना पड़ता है कि आप अपने काम में माहिर हैं। महिलाओं को लगातार हर मोर्चे पर साबित करना पड़ता है कि वे अच्छी मां हैं, अच्छी पत्नी हैं। बहुत एनर्जी लग जाती है, इसमें। हमेशा से जेहन में निर्देशक बनने की चाहत रही है। मगर हिम्मत जुटाने में थोड़े साल और लग गए। मेरी परवरिश एक मध्यमवर्गीय परिवार की है, तो मेरे लिए आर्थिक स्थायित्व बहुत मायने रखता है। स्कूल-कॉलेज में मैंने दस साल थिएटर किया, मगर जब एमेच्योर थिएटर को प्रोफेशनल थिएटर ग्रुप बनाने की कोशिश की, तो कोई टिकट खरीदने नहीं आया। उस वक्त मैंने कॉपोर्रेट जॉब का सहारा लिया। मैंने जर्नलिज्म और मास कम्युनिकेशन में पोस्ट ग्रेजुएशन की। फिर मैं कॉलेज में प्रोफेसर बन गई। उससे पहले मैंने रेडियो में काम किया। मैं जब ये सारा काम कर रही थी, तब भी मेरा दिल कहीं और था। यही वजह थी कि मैंने अपनी पहली शॉर्ट फिल्म टॉफी बनाई। मेरी इस फिल्म का काफी प्यार मिला। यह फिल्म मामी, ताइवान इंटरनैशनल फिल्म फेस्टिवल्स जैसी कई फिल्मोत्सवों में सराही गई। इस तारीफ से मेरे लेखन- निर्देशन को बल मिला। उसके बाद मैंने 2-3 और शॉर्ट फिल्म बनाई और अब मैं पांच औरतों के इर्द गिर्द घूमने वाली शर्मा जी की बेटी के साथ प्रस्तुत हुई हूं। मेरा मानना है कि आज की तारीख में महिला प्रधान फिल्म बनाने, उसे हाइलाइट और रिलीज करना बहुत बड़ा टास्क है। इसलिए यह सफर मेरे लिए काफी चुनौतीपूर्ण रहा है। यह फिल्म मेरे लिए खास है। इसमें ड्रामा और कॉमिडी सब कुछ है। कैंसर की जंग में फिजिकल पेन तो एक हिस्सा होता ही है, जिससे गुजरना पड़ता है। मगर उस दौर में इस ट्रीटमेंट के दौरान पितृसत्ताक सोच कैसे अपनी भूमिका निभाती है, यह जानना भी कम दुखदायी नहीं था। मुझे जब अपने ब्रेस्ट कैंसर का पता चला, तो मैंने इसे बहुत ही सकारात्मक और गरिमापूर्ण ढंग से हैंडल करने का फैसला किया। अपने ट्रीटमेंट के दौरान मुझे पता चला कि कई औरतें अपनी मैमोग्राफी, कीमोथेरेपी नहीं करवाती, क्योंकि एक जॉइंट फैमिली सिस्टम में वे ब्रा नहीं बोल सकती, तो ये कैसे बोलें कि उनके ब्रेस्ट में गांठ है। ब्रेस्ट बोलना ही टैबू है। कई औरतें यह ट्रीटमेंट न करवाने के कारण अपनी जान गंवाती हैं। डॉक्टर ने मुझे आंकड़े बताए, जो बहुत भयावह हैं।